Wednesday, April 2, 2014

kuchha mann ki

ये पंक्तियाँ लिखते वक़्त न तो पत्थर के बारे मे सोचा न इंतज़ार की अनिशचितता जैसा कोई विचार ,बस एक दृढ़ विश्वास था ,वो विश्वास जो पत्थर को भी भगवान बना देता है और ऐसा विश्वास प्रेम के सानिध्य में ही प्रस्फुटित होता है । मीरा का कृष्ण प्रेम इसी विश्वास की अभिव्यक्ति है कृष्ण एक विश्वास है मित्रता का ,विश्वास है प्रेम का और इसकी चरम अभिव्यक्ति का भाव है 'तेरा तुझको सौंपते क्या लागत है मोर '
क्योंकि प्रेम में कुछ पाने की इच्छा तो होती ही नहीं है तभी तो प्रेम करते है माँगते नही
"सब तुमसे कुछ पाने निकले मै निकली कुछ खोने ,जैसे -जैसे निज को खोया तुम्हे लगी मै पाने "
और इस भाव के साथ ही हमने अपनी समस्त शक्तियों का समर्पण उस परमसत्ता के प्रति इस विश्वास के साथ किया की किसी के न होने पर भी वो हमारे साथ है और इसी विश्वास और प्रेम की अभिव्यक्ति है "त्वदीयं वस्तु गोविन्दम् ,तुभ्यमेव समर्पयेत् "। यह आध्यात्म ,धर्म या प्रेम की व्याख्या नही एक सामान्य मानव मन की अभिव्यक्ति है । जिसमे वो अपनी अन्तर्निहित शक्ति को देवत्व प्रदान करता है । 

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